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Tuesday, August 20, 2013

बस.. चलती चली गई

वो छोटी थी
उम्र हो या तजुर्बा
मगर समझती थी सब
या यूँ कहो
नादान नहीं थी
बस.. छोटी थी
बात बड़ी करे.. तब भी


दुनियादारी नहीं जानती
ज़िम्मेदारी समझती थी
साझेदारी में यकीन रखती
भोली थी
मगर बेवकूफ नहीं

सबकी सुनती
दिल से करती भी
रिश्ते निभाती थी
पर दलदल में पाँव रखती
समझ नहीं पाई थी
कहाँ जा रही थी
बस..
चलती चली गई

अपने थे सब
पर अब अपने नहीं थे
न दोस्त न रिश्तेदार
बरबस समझ गई थी
कि कहीं छूट गया है
उनका प्यार

प्यार की चाह में
अपनत्व की लालसा में
अगला कदम बढ़ाती
मगर हर कदम
दलदल गहरी हो जाती थी


कहती किसे
लड़ती ही थी
अपनी सोच से
कभी भरोसे से
अपने ही दिल से
असीम जद्दोजहद।
ज़हन में जो लड़ाई
वो लड़ रही थी
सो अलग..

मकसद एक था
मिलना चाहती थी
अपनेआप से
'कहीं खो गई हूँ'
वह ढ़ूँढ़ रही थी
अपनेआप को 
जहाँ सालों पहले थी

हाँ
कुछ महीने नहीं
बरस बीत गए थे
उम्र अब भी छोटी थी

दरअसल
कुछ नहीं चाहिए था
फिर भी
खोज रही थी बहुत कुछ
जो न मिलने पर
हताशा, उदासी..
मगर हारी नहीं थी

विश्वास था
पा लेगी वो
पैसा, शौहरत और चालाकी..
से बहुत परे...
अपने अपनों को वापस

साथ हो पिता का
या माँ का प्यार
भाई-बहन की दोस्ती हो
या दोस्तों का विश्वास
पा तो लेगी ही

शायद गलत थी
मगर सच्ची तो थी
शायद मंज़िल न थी
मगर दिशा तो थी
शायद अकेली थी
पर सबके साथ तो थी
शायद याद न थी किसी को
मगर उसके होठों पर
सबके लिए फरियाद तो थी...


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